मोहब्बत

न जाने कब करवटे बदलते बदलते मैं नींद की गोद में खो गया था। वो खिड़की पे लगे पर्दो से आँख मिचोली खेलती धूप की किरणों ने कई असफल प्रयासों के बाद मुझे जगा ही दिया।

ये किरणे भी रोज़ आ जाती है मुझे जगाने और अब तो जैसे इनकी आदत सी हो गयी है। जैसे आदत है मुझे हर सुबह उस चिड़िया की आवाज़ की जो न जाने कहा से आ कर मेरी बालकनी में अपने सुर संग्राम का रियाज़ करने लग जाती है।

जिस दिन ये दोनों बारिश के आने पर कही खो से जाते है वो सुबह कुछ अधूरी सी मालूम होने लगती है।

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पर आज वो अधूरी सुबह न थी। आज दोनो ने फिर मेरा साथ दिया। अपने सपनो के कागज़ को आज फिर उस अधूरी नींद में बीच में ही छोर मैं उठ गया। सुबह का आफिस, शाम का खाना, वीकेंड की छुट्टी के इंतेज़ार में ज़िन्दगी मुस्कुराते हुए कट ही रही थी।

कोई नाराज़गी न थी ज़िन्दगी से मुझे पर न जाने क्यों वो सुकून भी न मिल रहा था कही। आज वो सब पा लिया मैंने जो कभी बस एक सपना था। माँ – बाबू जी मेरे काम से खुश है। बहन अच्छे कॉलेज में है। मेरी नौकरी भी अच्छी चल रही थी। पर न जाने क्यों मन शान्त न था आज भी, वो बेचैनी हर रात मेरे दरवाज़े पे आ मौन खड़ी मुझे एक टक देखा करती थी। न जाने क्यों चुप रह कर भी मानो ऐसा लगता था जैसे बहुत कुछ कहना हो उसे मुझसे।

खैर, रोज़ की तरह फिर उस सवाल के जवाब की खोज को अधूरा छोर मैं आफिस की ओर बढ़ चला। आज न जाने कैसे मुम्बई लोकल के अंधेरी स्टेशन की ओर बढ़ते हुए एक खयाल आया कि न जाने रोज़ कितने सपनो का भार अपने कंधे पे लिए ये लोकल उन्हें मंज़िल तक पहुँचती । रोज़ कितने सपने  टूटते होंगे, तो कुछ बनते होंगे। शायद इसी को तो विधि का विधान कहते है।

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पर मेरे साथ तो ऐसा कुछ न था तो फिर क्यों ये सवाल मेरे साये की तरह मेरा पीछा न छोड़ रहा था कि इस हृदय का ‘सुकून’ आखिर है कहाँ। लोकल की रफ़्तार में पसीना पोछते हुए फिर मैं उन्ही खयालो मैं खो गया।

शायद मेरे दिल में अभी भी कुछ अरमान है जो अधूरे है। कुछ सपने जो अभी भी राह तक रहे है मंज़िल तक पहुँचने की। या फिर शायद मुझे अपने किसी प्रिय के खुद से दूर होने का अहसास है।

हाँ, पीछे वाले अंकल के न जाने कहा जाने की जल्दी में दिए गये धक्के ने अचानक से शायद मेरे दिमाग की बत्ती जला दी। याद आयी मुझे, अपनी मोहब्बत। जी ये वही मोहब्बत है, जिसके दूर रहने से आज जीवन अधूरा से मालूम हो रहा था।

बहुत दिन से उसके एहसास से दूर था मैं, न जाने कब रोज़मर्रा की भाग दौड़ में मैं उसे पीछे छोड़ता चला गया मालूम ही नही पड़ा। ऐसा नही की अरसे हो गये उससे मिले पर फिर भी उससे एक दिन न मिलु तो अधूरा स लगता था।

हुई थी मेरी मुलाकात उससे यही पिछले रविवार। सलीम की गुमटी के पास वो शुक्ला जी की दुकान है ना उसपे। सुबह के कुछ 7 बजे थे। वो आज भी अपने उसी अंदाज के साथ मेरे सामने थी। वही रंग, वही सुगंध जो घंटो तक मुझे वही बांध के रख ले।

उस ग्लास में गरमा गर्म रखी ये ‘चाय‘ ही तो है मेरी मोहब्बत। यही तो है जिसने इतना परेशान कर रखा है। ये खयाल आते ही, कुछ अच्छा लगा। उस लोकल की भीड़ में भी दिल को सुकून का एहसास हुआ कि जैसे मैंने महीनों की मेहनत के बाद समुद्र से कोहिनूर ढूंढ निकाला हो। पर जो भी हो,अब कुछ अच्छा लगा।

इन्ही खयालो के सफर में अकेले खेलते-खेलते मैं खुश था क्योंकि आज शाम मोहबत से जो मुलाक़ात होनी थी मेरी।

जी हा, मोहब्बत है मुझे ‘चाय‘ से ।

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BY:- RAHUL SINGH RATHOUR

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